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Saturday, 26 June 2010

गंगा-जमुनी तहजीब : भारत को मूर्ख न बनाओ!

-डॉ. प्रवीण तोगड़िया
हिन्दुओं का कोई भी बड़ा त्यौहार, उत्सव हो, आजकल एक नया फैशन चला है। यह कहने का और पाखंड  करने का फैशन। हमारे मुसलमान और ईसाई भाइयों ने भी दीपावली का त्यौहार (या गणेश, दुर्गा पूजा, नवरात्रि, होली जो कोई उत्सव हो) बड़े धूमधाम से मनाया!
कुछ दिन पहले किसी बकबकी टीवी पर दिखाया गया कि किसी मुसलमान जोड़े ने अपना विवाह हिन्दू पद्धति से किया। गत 6 वर्षों से (अर्थात  भारत में जिहादी और माओवादी हमले बढ़ने के समय से!) यह कुछ अधिक ही दिख रहा है। किसी छोटे गांव के किसी कोने वाली मस्जिद में गणेश उत्सव में गणेश जी बिठाए जाते हैं, टीवी वालों को बुलाकर फोटो-शोटो खींचे जाते हैं, स्थानीय नेतागण सबसे आगे खड़े रहते हैं और बस! उस गणेश प्रतिमा को फोटो-ऑप का साधन मानकर नाटकबाजी चलती है!
स्वयं को एकमेव अद्वितीय समझनेवाले कुछ राजनेता भी सम्माननीय साधु-संतों के साथ मुसलमानों को भी बुलाकर अपने जन्मदिन के केक काटते हैं और जूते पहनकर मंच पर दिए प्रज्ज्वलित करते हैं!
यह सब नौटंकी 2 कारणों से हो रही है- पहला यह कि विश्वभर में जिहादी आतंकवाद के नाम पर जन जागृति शुरु होने के कारण मुस्लिम समाज को ऐसा लगा है कि अब गड़बड़ हो गया! इसीलिए अपनी प्रतिमा, मिल-जुलकर रहनेवाले, प्यार भरे दिलवाले (इनका सुनियोजित ‘प्यार’ मुंबई के हमले में भी दिखा और केरल के ‘लव जिहाद’ में भी दिख रहा है!) ऐसी छवि दिखाने के वैश्विक निर्णय करने के बाद यह नाटकबाजी शुरु हुई है।
दूसरा कारण हमारे देश में यह है कि अति-बुद्धिवादी कहलाने वालों ने यह अपने ही मन में तय कर रखा है कि इस देश का आम हिन्दू जो 85 करोड़ है, वह मूर्ख है और वे अति-बुद्धिवाद के जोश में 10 राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर जो बकते रहते हैं, वही सम्पूर्ण सत्य है!
गत 6 वर्षों में वही 12 चेहरे इन बकबकी टीवी चैनलों पर वही बकबक करते हुए दिखते हैं- उनका एक ही एजेण्डा होता है – हिन्दुओं को, हिन्दू नेताओं को, हिन्दू संगठनों को, हिन्दू साधु-संतों को गालियां देना और सनातनी, जैन, बौद्ध, वनवासी आदि जो प्राचीन परम्पराएँ हैं वे कितनी ‘हम्बग’ हैं, इनके बारे में ‘क्यांव क्यांव’ करते रहना!
इसमें कई ऐसे लोग आपने देखे होंगे जो यह सब धंधा करके आज राज्यसभा का टिकट पाकर जीवन सार्थक कर पाए! यह सब क्या है? योगी कहेंगे, यह कलियुग है, जहां धर्म का अपमान ही होगा और फिर प्रलय होगा! श्री श्री रविशंकर जी जैसे आध्यात्मिक गुरू कहेंगे – मैंने हमलावर को माफ किया और फिर भी हमारे विद्वान गृहमंत्री सब काम छोड़कर बस इसी विषय में प्रेस करेंगे कि ‘रविशंकर’ पर…(श्री श्री नहीं, रविशंकर जी नहीं…..यह आदत केवल हिन्दुओं के बारे में मीडिया की भी है- मुल्ला-मौलवी आता है तो ‘फलाना साहब’, ईसाई फादर आते हैं तो ‘फादर फलाना’; किन्तु  हिन्दू शंकराचार्य भी हो तो कहेंगे- ‘स्वरूपानंद’ और कोई थोड़ा नया मीडिया वाला हो तो कहेगा शंकराचार्य’-किन्तु ‘जी’ बिलकुल नहीं! शर्म आती है न हिन्दुओं को सम्मान देने में!) हम यह कलियुग के नाम पर छोड़ दें इतना सरल नहीं! यह एक बहुत बड़ा षड्यन्त्र राजनेताओं से लेकर जिहादियों तक और कुछ 10-12 मीडिया से लेकर एनजीओ तक सुनियोजित रीति से चलाया जा रहा है!
‘गंगा-जमुनी तहजीब’ यह शब्द, उनके पीछे आनेवाली झूठ-मूठ की पूजाएं यह हिन्दू संस्कृति को भ्रष्ट और फिर नष्ट करने का षड्यन्त्र है, जिसमें बहुत बड़े पदों पर बैठे लोग, विश्व की जिहादी और चर्च की शक्तियाँ तन-मन-धन से लगी हैं! कोई भी आक्रामक किसी देश पर चढ़ाई कर वहीं ठहर कर उस देश पर राज करने लगता है तो उसकी संस्कृति (दूसरे देश पर आक्रमण कर उनके मंदिर, मूर्तियां तोड़ना, उनकी बहू-बेटियों पर अत्याचार करना, उन्हें जबरदस्ती धर्मान्तरित करना इसे कोई संस्कृति कहता है तो कोई बर्बरता!)
आक्रमित देश की संस्कृति नहीं हो सकती, कोई भी थोपी गयी विकृति कभी संस्कृति नहीं होती! अमेरिका में ब्रिटिशों ने राज किया, उसके बाद वहां कई देशों से- लेबनान से लेकर इस्राएल और हंगरी से लेकर कोरिया, भारत, पाकिस्तान, केन्या से लोग गए, कुछ लोग आश्रित के नाते, विस्थापित के नाते गए, भारत के लोग सम्मान से गए और वहां की समृद्धि में सहयोग किया!
जिस देश, प्रदेश या समुदाय की अपनी संस्कृति, अपना सनातन धर्म न हो, जिसे करोड़ों युगों की परम्परा न हो, उस देश में बाहर से आनेवाले लोगों की आदतों को ही संस्कृति माना जाना स्वाभाविक है, किन्तु भारत में-जहां करोड़ों युगों की धर्म-परम्परा रही हो- जिनसे भारत सुख-समृद्धि-शान्ति में जीता रहा था- ऐसे भारत की उज्ज्वल संस्कृति को तहस-नहस कर गंदे  विकारों को फैलाकर कोई उसे गंगा-जमुनी तहजीब कह रहे हैं और आगे जाकर इस विकृत मनोवृत्ति और आचारों को ही भारत की आज की संस्कृति माना जाता है! या माना जाए, ऐसा दबाव समाज पर, राजनीति पर, न्याय संस्था पर, शिक्षा पद्धति पर डाला जाता है तो इस षड्यन्त्र के विरुद्ध जी-जान से खड़े रहने का साहस हिन्दू समाज शीघ्र दिखाए तो ही आगे कुछ भविष्य हम अपनी आगे आनेवाली पीढ़ियों को दे पायेंगे, वरना कभी नाटकबाजी से, कभी नए विकृत कानूनों से, कभी ‘मीडिया ट्रायल’ से तो कभी जातियों में जान-बूझकर झगड़ा करवाके ये ‘विकृतिवादी’ हमारी गंगा माँ का नाम भी कभी गंगा था ही नहीं और यमुना-जमुना ऐसे कोई नदी ही नहीं थी, यह सिद्ध कर उनका इस्लामिक या ‘चर्चिक’ स्वरूपान्तर न कर दे!
सम्हलों! हिन्दुओं, लोकतांत्रिक पद्धति से इन सब षड्यन्त्रों का विरोध एक होकर करो, वरना बहुत देर हो जायेगी!पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण

Friday, 18 June 2010

भारत व अमेरिका की दुर्घटनाएं (राष्ट्रीय चरित्र)

तिलक राज रेलन
एक (दुर)घटना 1984 में भारत के भोपाल की, दूसरी 2010 में अमेरिका की, व हमारे नेतृत्व के चरित्र का खुला चित्रण
Comment: Two tragedies, two very different responses
अमरीकी  राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश के लिए ब्रिटिश पेट्रोलियम के क्षे.प्र. कार्ल हेनरिक स्वैन बर्ग की गर्दन दबाई!
ओबामा के उबाल का कमाल: अमेरिका की समुद्र तटीय सीमा पर ब्रिटिश पेट्रोलियम के साथ सहयोगी ट्रांस ओशियन व हैल्लीबर्टन सभी द्वारा तेल निकासी में असावधानी हुई - दुर्घटना घटी ! इसमें 11 लोगों की मृत्यु हुई साथ ही समुद्री कछुए , पक्षी , डालफिन भी मारे गए ! अमेरिकी पर्यटन व मछली उद्योग को भी क्षति पहुंची !इस पर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उबल पड़े! विदेशी कं. ब्रि.पै. के क्षेत्र के प्रमुख को बुला लिया (व्हाइट हॉउस)! अमेरिका की विदेश नीति व विदेशियों के प्रति उनका व्यवहार सदा ही मेरी आलोचना का पात्र रहे हैं किन्तु उनके नेता अपने देश व देश वासियों के हितों  का समझौता   नहीं  करते  बल्कि  उनके हित  में करार  करने  को बेकरार  होते  हैं! उनका व्यक्तिगत चरित्र भले ही गिर जाये राष्ट्रीय चरित्र सदा प्रदर्शित  हुआ है!
ओबामा  ने कहा था मैं उनकी गर्दन पर पैर रख कर प्रति पूर्ति निकलवाऊंगा ,उसे पूरा कर दिखाया! त्रासदी के 2 माह में करार हो गया (अधिकारों का सदुपयोग अपने लिए नहीं देश के लिए)20 अरब डालर(1000 अरब रु.) - दोष उनके अपने लोगों का भी था किन्तु उन्हें साफ बचा कर ब्रि.पै. पर पूरा दोष जड़ते हुए करार करने में सफल होने पर कोई उंगली नहीं उठी!
Comment: Two tragedies, two very different responses
विश्व की सर्वाधिक भयावह औद्योगिक त्रासदी के पीड़ितों को अभी तक न्याय नहीं !
भोपाल गैस त्रासदी:- वैसे तो 1984 में 2 प्रमुख दुखद घटनाएँ घटी, किन्तु यहाँ एक की तुलना उपरोक्त से की जा सकती है चर्चा में ली जाती है! वह है भोपाल गैस त्रासदी --बताया जाता है इसमें 15000 सीधे सीधे दम घुटने से अकाल मृत्यु का ग्रास बने, 5 लाख शारीरिक विकार व भयावह कष्टपूर्ण अमानवीय यंत्रणा/त्रास /नरक भोगते हुए  मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं ! तो उनकी अगली पीडी भी इसे भोगने को अभिशप्त होगी! इससे वीभत्स और क्या होगा? इस सब के लिए उनका अपना कोई दोष नहीं था किन्तु दूसरों के दोष का दंड इन्हें भुगतना पड़ा ! क्यों? पशु पक्षियों का हिसाब हम तब लगाते यदि मानव को कीड़े मकोड़े से अधिक महत्व दे पाते? उद्योग/व्यवसाय की हानी तब देखते जब अपनी तिजोरियां स्विस खातों तक न भरी जातीं!एंडरसन को दिल्ली बुला कर कड़े शब्दों में देश/ जनहित का करार करने का दबाव बनाना तो दूर दिल्ली से आदेश भेजा गया उसे छोड़ने का, वह भी पूरे सम्मान के साथ ?
बात इतनी ही होती तो झेल जाते, उनका चरित्र देखें, धोखा अपनों को दिया और नहीं पछताते ?

कां. का इतिहास देखें एक परिवार की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता, अर्जुन सिंह यह निर्णय लेने के सक्षम नहीं, दिल्ली से आदेश आया को ठोस आधार मानने के अतिरिक्त ओर कुछ संकेत नहीं मिलता? उस शीर्ष केंद्र को बचाने के प्रयास में भले ही बलि का बकरा अर्जुन बने या सरकारी अधिकारी?
प्रतिपूर्ति की बात 14फरवरी, 1989 भारत सरकार के माध्यम 705 करोर रु. में गंभीर क़ानूनी व अपराधिक आरोप से कं. को मुक्त करने का दबाव निर्णायक परिणति में बदल गया! 15000 के जीवन का मूल्य हमारे दरिंदों ने लगाया 12000 रु. मात्र प्रति व्यक्ति 5 लाख पीड़ित व वातावरण के अन्य जीव- जंतु , अन्य हानियाँ = शुन्य? कितने संवेदन शुन्य कर्णधारों के हाथ में है यह देश?
  दोषी कं अधिकारिओं को दण्डित करने के प्रश्न पर भी 1996 में विदेशी कं को गंभीरतम आरोपों से बचाने हेतु धारा 304 से 304 ए में बदलने का दोषी कौन? फिर वह भी मुख्या आरोपी को भगा कर अन्य को मात्र दो वर्ष का कारावास,मात्र 1 लाख रु. का अर्थ दंड क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्या अपराधी कि जगन बने बलि के बकरे को पहले ही आश्वस्त किया गया हो बकरा बन जा न्यूनतम दंड अधिकतम गुप्त लाभ? एंडरसन के जाने के बाद इतनी सफाई से उसके हितों कि रक्षा करने वाला कौन? जिसके तार ही नहीं निष्ठा भी पश्चिम से जुडी हो? स्व. राजीव गाँधी के घर ऐसा कौन था? अपने क्षुद्र स्वार्थ त्याग कर देश के उन शत्रुओं की पहचान होनी ही चाहिए? इसे किसी भी आवरण से ढकना सबसे बड़ा राष्ट्र द्रोह होगा? 
उस समय हम चूक गए पर अबके किसी मूल्य पर चूकना नहीं है? अपने व अगली पीडी के भविष्य के लिए? लड़ते हुए हार जाते तो इतना दुःख न था जा के दुश्मन से मिल गए ऐसे निकले?
 People should depend on People not on money.We try to find scape goats. 
भोपाल गैस त्रासदी से शिक्षा के बाद भी हमारी सरकारों की (आत्मा यदि जीवित है तो) चेत जाना चाहिए था किंतु दिल्ली की सरकार जिस परमाणु अप्रसार के जुड़े विधेयक को पास कराने पर जुटी है उसमें इसी तरह कंपनियों को बचाने के षडयंत्र हैं। लगता है कि हमारी सरकारें भारत के लोगों के द्वारा भले बनाई जाती हों किंतु वे चलाई कहीं और से जाती हैं। लोकतंत्र के लिए यह कितना बड़ा व्यंग  है कि हम अपने लोगों की लाशों पर विदेशियों को मौत के कारखाने खोलने के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं।विदेशी निवेश के लिए कुछ भी शर्त मानने को हमारी सरकारें, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सब पगलाएं हैं। चाहे उसकी शर्ते कुछ भी क्यों न हों। क्या यह न्यायोचित है। जब देश और देशवासी ही सुरक्षित नहीं तो ऐसा औद्योगिक विकास लेकर हम क्या करेंगें। अपनी लोगों की लाशें कंधे पर ढोते हुए हमें ऐसा विकास कबूल नहीं है। इस घटना का सबक यही है कि हम सभी कंपनियों का नियमन करें,पर्यावरण से लेकर हर खतरनाक मुद्दे पर कड़े कानून बनाएं ताकि कंपनियां हमारे लोगों की सेहत और उनके जान माल से न खेल सकें। निवेश सिर्फ हमारी नहीं विदेशी कंपनियों की भी गरज है। किंतु वे यहां मौत के कारखाने खोलें और हमारे लोग मौत के शिकार बनते रहें यह कहां का न्याय है। भोपाल कांड के बहाने जब सत्ता और अफसरशाही के षडयंत्र और बिकाउपन के किस्से उजागर हो चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि इस तरह के कामों की पुनरावृत्ति कैसे रोकी जा सकती है। यहां तक की गैस त्रासदी के मूल दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की गयी। ऐसा मुजरिमों को बचाने और कम सजा दिलाने के लिए किया गया। अब इस घतकरम के बाद किस मुंह से लोग अपने नेताओं को पाक-साफ ठहराने की कोशिशें कर रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। अब ये प्रमाण सामने आ चुके हैं कि 3 दिसंबर,1984 को दर्ज हादसे की एफआईआर और पांच दिसंबर को कोर्ट के रिमांड आर्डर में भारी हेरफेर की गयी। इतना सब होने के बाद भी हमारी बेशर्म राजनीति हमें न्याय दिलाने का आश्वासन दे रही है। जल्लादों के हाथ में ही न्याय की पोथी थमा दी गयी है। जाहिर है वे जो भी करेंगें वह जंगल का ही न्याय होगा। इस हंगामे में जरूर सरकारें और राजनीति हिली हुयी है किंतु सारा कुछ जल्दी ही ठहर जाएगा। हम भारत के लोगों को ऐसे हंगामे करने और भूल जाने की आदत जो है। भोपाल इस सदी की एक ऐसी सच्चाई और कलंक के रूप में हमारे सामने है जिसका जवाब न हमारी राजनीति के पास है, न न्यायपालिका के पास, न ही हमारे प्रशासन के पास। क्योंकि इस प्रसंग में संवैधानिक पद पर बैठा हर आदमी अपनी जिम्मेदारियों से भागता हुआ दिखा है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक, रायसीना की पहाड़ियों से लेकर श्यामला हिल्स तक ये पाप-कथाएं पसरी पड़ी हैं। निचली अदालत के फैसले ने हमें झकझोर कर जगाया है किंतु कब तक। क्या न्याय मिलने तक। या हमेशा की तरह किसी नए विवादित मुद्दे के खुलने तक…

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