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Sunday 7 November 2010
अमरीका के राष्ट्रपति की यात्रा
अमरीका के राष्ट्रपति की यात्रा
आजकल अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत की यात्रा पर हैं या कहें कि शुद्ध व्यापर यात्रा पर हैं.
अमरीका विकसित देशों कि श्रेणी आता है, लेकिन उसे आज भारत की जरुरत है ताकि उनके देश के लोगों को रोज़गार मिले उन्हें भी खाली हाथों के लिए काम की दरकार है. एक विकसित देश होने के वावजूद वो लोग इस बात को समझ रहे हैं और अपने नागरिकों की चिंता में उस देश का राष्ट्रपति व्यापार के रूप में युद्ध और बारूद बेचने आया है . हम युद्धपोत खरीदें, हम बमगोले खरीदें, हम उनकी बेकार तकनीक खरीदें और उनके कचरे को खरीदकर अपने देश का बंटाधार करें, लुटिया दूबों दें .
अमरीका चाहता है कि हम ईरान के मुद्दे पर उसका साथ दें, लेकिन पाकिस्तान का मुद्दा अपने आप सुलझाये . वह चीन से सीधे निपट नहीं सकते इसलिए वे चाहते हैं हम चीन से लड़ें, पाकिस्तान से लड़ें ताकि वे अपने हथियार बेच सकें. शांति उनका नारा हो सकता है उनकी मंशा नहीं हो सकती.
ऐसी सरकार से क्या अपेक्षा रखें जो अपने हित भी नहीं साध सकती. ओबामा भारत में रहते हुए भी पाकिस्तान की तरफदारी करता है, पाकिस्तान को स्थिर करने के लिए हथियारों की वकालत करता है. वह मध्यस्थ बनना चाहता है , लेकिन ये कहकर साधू का रूप धारण किये है कि हम फैसला नहीं थोपेंगे दोनों देशों पर. पाकिस्तान का साथ उसके लिए मजबूरी है क्योंकि अफगानिस्तान में उसके अपने हित है.
इस देश को और जनता को सोचना चाहिए की देश और जनहित में क्या है? देश अपनी समस्याओं से जूझ रहा है, समस्या हमारी है और समाधान भी हमें ही ढूंढ़ना होगा. उन्हें हमारे मरते लोग नज़र नहीं आते. उन्हें अपने ऊपर हुए हमले याद हैं हमारे २५ हज़ार लोग जो भोपालगैस कांड में मरे उनके दोषियों को बचाने में उन्हें शर्म नहीं आती , उनकी मानवता एक मुखौटा है, हमने इसके पीछे की क्रूरता का दंश बहुत बार झेला है. हमें अपने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को मजबूत करना चाहिए ना कि उनके पिछलग्गुओं के संगठन को. हमने परमाणु विस्फोट किये, प्रतिबन्ध लगे हमारी उन्नति उन्हें नहीं भाती है. हम उन दुर्दिनो से भी अपने प्रयासों से उभरे हैं और आगे बढे हैं.
अपने विभिन्न भाषणों में ओबामा भारत के गुण गा रहा है. अमरीका कि तरक्की में भारतीयों कि सेवा याद आ रही है, लेकिन outsourcing के मुद्दे पर वह भारतीयों कि नौकरियों पर तलवार क्यूँ चलाते हैं ? तब क्या भारत के हित याद नहीं रहते? ये सब शब्द जाल है इस से ज्यादा और कुछ नहीं. आज उन्हें पढ़े लिखे भारतीय मजदूर कम दामों पर दरकार हैं, लेकिन वे अपने लोगों कि सेवा बेचेंगे महंगे दामों में . क्यूँ खरीदें हम ? क्या हमारे बच्चे बेरोजगार नहीं हैं ? क्या हमें भर पेट खाने का हक नहीं है ? वे कहते उनके यहाँ सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मिलती है, लेकिन कभी देखें आधे से ज्यादा विदेशी अध्यापक उनके लोगों को पढाते हैं, जिनमें ज्यादातर एशिया महाद्वीप से सम्बन्ध रखते हैं ?
आज भारत कि कम लागत कि उन्नत कृषि तकनीक उनकी आँखों में खटकती है, वे हमें पहले ही उन्नत बीजों के नाम पर और रासायनिक खाद के रूप में, हमारी कृषि को लीलने वाला भस्मासुरी तोहफा दे चुके हैं, हमारी जमीनों को बंजर बनाकर . वे हमारे शून्य से प्रभावित हैं, उन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी याद आते हैं अपने राष्ट्रपति बनने के पीछे , वे उन्हें आदर्श मानते हैं, लेकिन कौन सा काम किया अहिंसा का ?
उन्हें सिर्फ अपना मकसद साधना है, उन्हें भारत से कुछ लेना देना नहीं है. वास्तव में आज अमरीका हमें भीख देने कि दशा में नहीं है बल्कि भीख मांग रहा है. इस देश के बलि राजा ( प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ) से ये अपेक्षा है कि दान समझ कर देना . सावधान रहना भिखारी चालाक है (इन्द्र ) जैसा . वह प्यार से मनुहार से बस लूटना चाहता है. दोस्तों देश पाताल में ना चला जाये इस लिए दोस्तों जागते रहो. चिंतन।
अब आवाज़ का हथियार उठाना होगा हम कोई घास नहीं ये बताना होगा
तुम्हें कह दिया अपना मुहाफ़िज़ हमने क्यूँ गैर के सामने सिर झुकाना होगा
बहुत पी लिया लहू हमारा अपनों नेपेश गैरों को लबरेज़लहू पैमाना होगा
डाके को भी तिजारत का नाम देते हैंमुल्क के हर शख्स को जगाना होगा
बने फिरते हैं दुनिया के खैरख्वाह वो कितने पानी में उनको दिखाना होगा
उनके कहने पे चलेंगे तो बर्बादी है पांव हर एक फूंककर बढ़ाना होगा
केदारनाथ "कादर"
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण
Friday 18 June 2010
भारत व अमेरिका की दुर्घटनाएं (राष्ट्रीय चरित्र)
तिलक राज रेलन
एक (दुर)घटना 1984 में भारत के भोपाल की, दूसरी 2010 में अमेरिका की, व हमारे नेतृत्व के चरित्र का खुला चित्रण
एक (दुर)घटना 1984 में भारत के भोपाल की, दूसरी 2010 में अमेरिका की, व हमारे नेतृत्व के चरित्र का खुला चित्रण
अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश के लिए ब्रिटिश पेट्रोलियम के क्षे.प्र. कार्ल हेनरिक स्वैन बर्ग की गर्दन दबाई!
ओबामा ने कहा था मैं उनकी गर्दन पर पैर रख कर प्रति पूर्ति निकलवाऊंगा ,उसे पूरा कर दिखाया! त्रासदी के 2 माह में करार हो गया (अधिकारों का सदुपयोग अपने लिए नहीं देश के लिए)20 अरब डालर(1000 अरब रु.) - दोष उनके अपने लोगों का भी था किन्तु उन्हें साफ बचा कर ब्रि.पै. पर पूरा दोष जड़ते हुए करार करने में सफल होने पर कोई उंगली नहीं उठी!
विश्व की सर्वाधिक भयावह औद्योगिक त्रासदी के पीड़ितों को अभी तक न्याय नहीं !
बात इतनी ही होती तो झेल जाते, उनका चरित्र देखें, धोखा अपनों को दिया और नहीं पछताते ?
कां. का इतिहास देखें एक परिवार की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता, अर्जुन सिंह यह निर्णय लेने के सक्षम नहीं, दिल्ली से आदेश आया को ठोस आधार मानने के अतिरिक्त ओर कुछ संकेत नहीं मिलता? उस शीर्ष केंद्र को बचाने के प्रयास में भले ही बलि का बकरा अर्जुन बने या सरकारी अधिकारी?
प्रतिपूर्ति की बात 14फरवरी, 1989 भारत सरकार के माध्यम 705 करोर रु. में गंभीर क़ानूनी व अपराधिक आरोप से कं. को मुक्त करने का दबाव निर्णायक परिणति में बदल गया! 15000 के जीवन का मूल्य हमारे दरिंदों ने लगाया 12000 रु. मात्र प्रति व्यक्ति 5 लाख पीड़ित व वातावरण के अन्य जीव- जंतु , अन्य हानियाँ = शुन्य? कितने संवेदन शुन्य कर्णधारों के हाथ में है यह देश?
दोषी कं अधिकारिओं को दण्डित करने के प्रश्न पर भी 1996 में विदेशी कं को गंभीरतम आरोपों से बचाने हेतु धारा 304 से 304 ए में बदलने का दोषी कौन? फिर वह भी मुख्या आरोपी को भगा कर अन्य को मात्र दो वर्ष का कारावास,मात्र 1 लाख रु. का अर्थ दंड क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्या अपराधी कि जगन बने बलि के बकरे को पहले ही आश्वस्त किया गया हो बकरा बन जा न्यूनतम दंड अधिकतम गुप्त लाभ? एंडरसन के जाने के बाद इतनी सफाई से उसके हितों कि रक्षा करने वाला कौन? जिसके तार ही नहीं निष्ठा भी पश्चिम से जुडी हो? स्व. राजीव गाँधी के घर ऐसा कौन था? अपने क्षुद्र स्वार्थ त्याग कर देश के उन शत्रुओं की पहचान होनी ही चाहिए? इसे किसी भी आवरण से ढकना सबसे बड़ा राष्ट्र द्रोह होगा?
उस समय हम चूक गए पर अबके किसी मूल्य पर चूकना नहीं है? अपने व अगली पीडी के भविष्य के लिए? लड़ते हुए हार जाते तो इतना दुःख न था जा के दुश्मन से मिल गए ऐसे निकले?
1984 के पाप के बाद क्या अब भी नहीं सुधरेंगे? मंत्री मंडलीय समिति का गठन ऐसे समय में करना जब सब जानते हैं सांप को भगा देने पर लकड़ी पीटने का नाटक किया जा रहा है! नीचता की इस सीमा को देखते हुए कोई स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए जो निश्छल हो, जनहित में व स्वीकार्य होभोपाल गैस त्रासदी के नवीनतम प्रमाण इसके प्रति कांग्रेस व उसकी सरकारों के असंवेदनशील, निकृष्टतम, दुष्कृत्यों पर कथित योग्य व इमानदार प्र. मं. मनमोहन सिंह देश को स्पष्टीकरण दें
जिनके बिना कं या सरकार के किसी प्रवक्ता को सुनने वाला कोई नहीं है ?
भौकने वाले पालतू हों या फालतू क्या लेना, बकवास ही सुननी है उनके मालिक ही बकें!
राजनीति की इन घृणित सच्चाइयों पर अब देश की सबसे सत्यवादी,स्वतंत्रता की जनक संविधान रचयिता INC (InterNational Crooks) पार्टी के प्रवक्ता का वक्तव्य सुनिए। वे कह रहे हैं कि अगर एंडरसन को देश से निकाला नहीं जाता तो भीड़ उन्हें मार डालती। वे कहते हैं देखिए कसाब को जेल में रखने और सुरक्षा देने में नाहक कितना खर्च आ रहा है। वाह हमारे नेता जी और आपकी राजनीति।अपराधियों को दण्डित करने पर व्यय से उत्तम है जेल के फाटक खोल दिए जाएं, इतने अपराधियों और आरोपियों पर हो रहा खर्च बच जाएगा। इस बेशर्मी का कारण मात्र यह है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी का नाम इस विवाद से जुड़ा है। अब कांग्रेस और उस पर अंध भक्ति रखने वाले कैसे स्वीकार करे कि गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों से भी कभी कोई पाप हो सकता है। देवकांत बरूआ के ‘इंदिरा इज इंडिया’ के नारे व तलवा चाटू संस्कार पाकर बड़े हुए आज के कांग्रेसजन चाटुकारिता की इस प्रतियोगिता में पीछे कैसे रह सकते हैं?। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है सजा दिलाने के लिए कानूनों में परिवर्तन करना चाहिए। विगत 25 वर्ष आप इन सुविचारों के साथ किस कन्दरा में थे मान्यवर?झूठ पर खड़ी कां. व राजीव की छवि कब तक सत्य के प्रकाश से बचोगे, व इसके लिए कितना गिरोगे ?
क्या मंत्री मंडलीय समिति सक्षम है? चर्चा कर सुनिश्चित कर सके वास्तविक दोषी वास्तव में दण्डित हों? इसके लिए पूरी प्रक्रिया परिवार निष्ठा से नहीं, पूरी सत्य निष्ठा से चले, मंत्रियों/शीर्ष नेताओं व मीडिया वालों से अनुरोध है वे, इन गंभीर प्रश्नों के उत्तर प्र.मं./ सोनिया जी से लें! उससे कम की बकवास से देश वासियों को न छलें! लीपापोती न होकर पीड़ितों को राहत मिल सके?
15000 मृतक नागरिकों,व अन्य पीड़ितों के परिजनों को न्याय मिलने से पूर्व एंडरसन मात्र 6 दिन में कैसे इस देश को छोड़ के जा सका? इतना ही नहीं 15 हजार हत्याओं का दोषी यह व्यक्ति दिल्ली में राष्ट्रपति से भेंट भी करता है।
पीड़ितों के प्रति असंवेदन शीलता, न्याय के प्रति तिरस्कार,समाज व देश के प्रति दायित्व हीनता की कांग्रेसी मानसिकता का इससे बड़ा प्रमाण कुछ और चाहिए तो देखते रहें अभी तो खेल खुलने लगा हैं! आगे भी यही होगा न्यूनतम दंड अधिकं गुप्त लाभ दे कर बलि का बकरा सत्य को ग्रहण लगा देगा! गाँधी ने अपने आसपास पाखंडियों की भीड़ को पहचान कर ही कहा था की आज़ादी के बाद कांग्रेस भंग कर देनी चाहिए!संभवतया यही गाँधी की हत्या का कारण भी रहा हो बकरा बना गोडसे?हम उन्ही पाखंडियों का गुण गन गाते उन्हें व उनके पालतू कुछ फालतू बोझ को बचाते देश को लूटने/ लुटाने में व्यस्त हैं जय गाँधी बाबा की सफ़ेद खादी ढक दे सभी कुकर्मों को नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छुपी रहे !
हमारे एक मित्र कहते हैं यह देश ऐसा क्यों है? बड़ी से मानवीय त्रासदी हमें क्यों नहीं हिलाती? हमारा स्मृतिदोष इतना विलक्षण क्यों है? हम क्यों भूलते और क्यों क्षमा कर देते हैं? राजनीति यदि ऐसी है तो इसके लिए क्या हम भारत के लोग दोषी नहीं है? क्या कारण है कि हमारे शिखर पुरूषों की चिंता का विषय आम भारतीय नहीं गोरी चमड़ी का वह आदमी है जिसे देश से निकालने के लिए वे सारे प्रबंध निपुणता से करते हैं। हमारे लोगों को सही प्रतिपूर्ति मिले, उनके घावों पर औषध का लेप लगे इसके बदले हम लीपा पोती करते दिखते हैं जिसने लिए हम बिक जाते हैं। पैसे की यह प्रकट पिपासा हमारी राजनीति, समाज जीवन, प्रशासनिक तंत्र सब जगह छा रही है। आम आदमी की पार्टी के नाम पर सत्ता पाने वालों के लिए आम भारतीय जान इतनी सस्ती है कि पूरा विश्व इस सत्य को जानने के बाद हम पर हंस रहा है।। भोपाल में निचली अदालत के निर्णय से और कुछ हो या न हो, हमारे तंत्र का नकली चेहरा स्पष्ट कर दिया है। देश के तंत्र के चारों स्तम्भ व उनपर खड़ी लोकतंत्र की छत आम आदमी के नहीं अपराधियों व केवल अपराधियों के संरक्षण के लिए बने हैं !स्थिति यह है कि कुछ लोग अभी भी जन हित सर्वोपरि मानते हैं जिन के अभियानों के दबाव प्रतिपूर्ति का निर्णय मिल सका, मिला। देश की सरकारों की ओर से न्यायपूर्ण प्रयास नहीं देखे गए।बिकाऊ मीडिया के बीच सत्य निष्ठ मीडिया के अवशेष अभी भी शेष हैं? आज भी भोपाल को लेकर मचा शोर इसलिए प्रखरता से दिख रहा है क्योंकि मीडिया ने इसमें रूचि ली और राजनैतिक दलों को बगलें झांकने को बाध्य कर दिया।एक ओर घोर बाजारवादी समाज के बीच उनके नेता का राष्ट्रीय चरित्र दूसरी ओर आदर्शवादी समाज का आधुनिक नेतृत्व? विकसित होने की चाह ने विकास की नई राह ने कहाँ से कहाँ हमें गिराया है? धन व लोभ की भूख ने संवेदना व मानवता को मिटाया है! कुछ लोगों को मिली उपाधियों व व्यक्तिगत उपलब्धियों व बिकाऊ मीडिया ने हमें भरमाया है? सत्य जो अब भी समझ आया है, युगदर्पण ने अलख यही जगाया है? तिलक
भोपाल गैस त्रासदी से शिक्षा के बाद भी हमारी सरकारों की (आत्मा यदि जीवित है तो) चेत जाना चाहिए था किंतु दिल्ली की सरकार जिस परमाणु अप्रसार के जुड़े विधेयक को पास कराने पर जुटी है उसमें इसी तरह कंपनियों को बचाने के षडयंत्र हैं। लगता है कि हमारी सरकारें भारत के लोगों के द्वारा भले बनाई जाती हों किंतु वे चलाई कहीं और से जाती हैं। लोकतंत्र के लिए यह कितना बड़ा व्यंग है कि हम अपने लोगों की लाशों पर विदेशियों को मौत के कारखाने खोलने के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं।विदेशी निवेश के लिए कुछ भी शर्त मानने को हमारी सरकारें, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सब पगलाएं हैं। चाहे उसकी शर्ते कुछ भी क्यों न हों। क्या यह न्यायोचित है। जब देश और देशवासी ही सुरक्षित नहीं तो ऐसा औद्योगिक विकास लेकर हम क्या करेंगें। अपनी लोगों की लाशें कंधे पर ढोते हुए हमें ऐसा विकास कबूल नहीं है। इस घटना का सबक यही है कि हम सभी कंपनियों का नियमन करें,पर्यावरण से लेकर हर खतरनाक मुद्दे पर कड़े कानून बनाएं ताकि कंपनियां हमारे लोगों की सेहत और उनके जान माल से न खेल सकें। निवेश सिर्फ हमारी नहीं विदेशी कंपनियों की भी गरज है। किंतु वे यहां मौत के कारखाने खोलें और हमारे लोग मौत के शिकार बनते रहें यह कहां का न्याय है। भोपाल कांड के बहाने जब सत्ता और अफसरशाही के षडयंत्र और बिकाउपन के किस्से उजागर हो चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि इस तरह के कामों की पुनरावृत्ति कैसे रोकी जा सकती है। यहां तक की गैस त्रासदी के मूल दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की गयी। ऐसा मुजरिमों को बचाने और कम सजा दिलाने के लिए किया गया। अब इस घतकरम के बाद किस मुंह से लोग अपने नेताओं को पाक-साफ ठहराने की कोशिशें कर रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। अब ये प्रमाण सामने आ चुके हैं कि 3 दिसंबर,1984 को दर्ज हादसे की एफआईआर और पांच दिसंबर को कोर्ट के रिमांड आर्डर में भारी हेरफेर की गयी। इतना सब होने के बाद भी हमारी बेशर्म राजनीति हमें न्याय दिलाने का आश्वासन दे रही है। जल्लादों के हाथ में ही न्याय की पोथी थमा दी गयी है। जाहिर है वे जो भी करेंगें वह जंगल का ही न्याय होगा। इस हंगामे में जरूर सरकारें और राजनीति हिली हुयी है किंतु सारा कुछ जल्दी ही ठहर जाएगा। हम भारत के लोगों को ऐसे हंगामे करने और भूल जाने की आदत जो है। भोपाल इस सदी की एक ऐसी सच्चाई और कलंक के रूप में हमारे सामने है जिसका जवाब न हमारी राजनीति के पास है, न न्यायपालिका के पास, न ही हमारे प्रशासन के पास। क्योंकि इस प्रसंग में संवैधानिक पद पर बैठा हर आदमी अपनी जिम्मेदारियों से भागता हुआ दिखा है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक, रायसीना की पहाड़ियों से लेकर श्यामला हिल्स तक ये पाप-कथाएं पसरी पड़ी हैं। निचली अदालत के फैसले ने हमें झकझोर कर जगाया है किंतु कब तक। क्या न्याय मिलने तक। या हमेशा की तरह किसी नए विवादित मुद्दे के खुलने तक…
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