- नेता जी सुभाष के जन्म दिवस पर उन्हें शत शंत नमन ...!! व सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं !1931 में कांग अध्यक्ष बने नेताजी, गाँधी का नेहरु प्रेम आड़े न आता;तो देश का बंटवारा न होता, कश्मीर समस्या न होती, भ्रष्टाचार न होता,देश समस्याओं का भंडार नहीं, विपुल सम्पदा का भंडार होता(स्विस में नहीं)!-- तिलक संपादक युग दर्पण
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त, 1945 विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।1944 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि यदि उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।[अनुक्रम 1 जन्म और कौटुंबिक जीवन, 2 स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य, 3 कारावास, 4 यूरोप प्रवास, 5 हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षप, 6 कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा, 7 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना, 8 नजरकैद से पलायन, 9 नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात, 10 पूर्व एशिया में अभियान, 11 लापता होना और मृत्यु की खबर 11.1 टिप्पणी, 12 सन्दर्भ, 13 बाहरी कड़ियाँ,]जन्म और कौटुंबिक जीवननेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक शहर के प्रसिद्द वकील जानकीनाथ बोस व कोलकाता के एक कुलीन दत्त परिवार से आइ प्रभावती की 6 बेटियाँ और 8 बेटे कुल मिलाकर 14 संतानें थी। जानकीनाथ बोस पहले सरकारी वकील बाद में निजी तथा कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया व बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे।।स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्यकोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और मणिभवन में 20 जुलाई, 1921 को महात्मा गाँधी से मिले। कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। दासबाबू उन दिनों अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का ढंग ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को उत्तर देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। किन्तु सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराजकी मांग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, 1 वर्ष का समय दिया जाए। यदि 1 वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जब लाहौर में हुआ, तब निश्चित किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। किन्तु अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से माना कर दिया। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। किन्तु गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के नीतिओं से बहुत रुष्ट हो गए।कारावासअपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921में 6 माह का कारावास हुआ।1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने भूल से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न केवल ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।5 नवंबर, 1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की सूचना मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। उन्हें तपेदिक हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे चिकित्सा के लिए यूरोप चले जाए। किन्तु सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सा के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। अन्त में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू चिकित्सा के लिए डलहौजी चले गए।1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे अलमोडा जेल में रखा गया। अलमोडा जेल में उनका स्वास्थ्य फिर से बिगड़ गया। वैद्यकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार चिकित्सा हेतु यूरोप जाने को सहमत हो गए।यूरोप प्रवासजब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। किन्तु उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती, गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।1934 में सुभाषबाबू को उनके पिता मृत्त्यूशय्या पर होने की सूचना मिली। इसलिए वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मृत्त्यू हो चुकी थी। कोलकाता पहुँचते ही, अंग्रेज सरकार ने उन्हे बंदी बना दिया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षपदइस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में विख्यात वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फासिस्ट कहने लगे। किन्तु इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।कांग्रेस के अध्यक्षपद से त्यागपत्र1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, किन्तु गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी बीच युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। किन्तु गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजीने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। किन्तु गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत वर्षों के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। किन्तु वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बाद भी सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।किन्तु चुनाव के निकाल के साथ बात समाप्त नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि यदि वें सुभाषबाबू के नीतिओं से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझोते के लिए बहुत कोशिश की। किन्तु गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। अन्त में तंग आकर, 29 अप्रैल, 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से त्यागपत्र दे दिया।फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर बाध्य करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। किन्तु अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध काल में मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।नजरकैद से पलायननजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी, 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी भेंट, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह यात्रा कार्य पूरा किया।काबुल में सुभाषबाबू 2 माह तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में असफल रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने का प्रयास किया। इटालियन दूतावास में उनका प्रयास सफल रहा। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। अन्त में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकातबर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी बीच सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।कई वर्ष पूर्व हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस पुस्तक में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर क्षमा माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलने वाला हैं। इसलिए 8 मार्च, 1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व एशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के बीच, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।पूर्व एशिया में अभियानपूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे स्वयं इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल 9 देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती किया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक सहायता करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। किन्तु बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया।अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । ।लापता होना और मृत्यु की खबरद्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना आवश्यक था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, किन्तु वे सफल नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में 2 बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह परिणाम निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। किन्तु जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की सूचना थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।देश के अलग-अलग भागों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं किन्तु इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।टिप्पणी
- कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के माध्यम असफल नहीं हो सकता, यदि वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ प्राप्त कर लेगा।...सुभाष चंद्र बोस
- एक मामले में अंग्रेज बहुत भयभीत थे। सुभाषचंद्र बोस, जो उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे, ने कूच कर दिया था।...क्रिस्टॉफर बेली और टिम हार्पर
- सन्दर्भ
- अब छत्तीसगढ़ में सुभाष चंद्र बोस
- आज़ाद भारत में आज़ाद हिंद
- ''नेताजी की हत्या का आदेश दिया था
- बाहरी कड़ियाँ
- नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक करे सरकार
- नेताजी सुभाष: सत्य की अनवरत तलाश
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कर्ण
- सुभाषचंद्र बोस : संक्षिप्त परिचय (वेबदुनिया)
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - आजादी के महानायक
- राष्ट्र गौरव सुभाष: नेताजी से जुड़े वे तथ्य और प्रसंग, जिन्हें हर भारतीय को- खासकर, युवा पीढ़ी को- जानना चाहिए, मगर दुर्भाग्यवश जान नहीं पाते हैं
Sunday, 23 January 2011
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन
Saturday, 22 January 2011
26 जनवरी गणतंत्र दिवस की एकता यात्रा व विरोध के स्वरों का निहितार्थ
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण
Monday, 17 January 2011
काफ़ी कैट (मार्जार काफ़ी) नखरों की हद्द नहीं------------------------विश्व मोहन तिवारी, पूर्व एयर वाइस मार्शल
जब मैने पढ़ा कि दिल्ली में ही एक विदेशी कम्पनी की काफ़ी की दूकान में एक प्याला काफ़ी दो या ढाई सौ रुपये का मिलता है वह कीमत की ऊँचाई आज के विदेशी भक्त्तों की श्रद्धा के बावजूद समझ में नहीं आ रही थी।
'डाउन टु अर्थ' में पढ़ा कि एक जंगली मार्जार ( सिवैट – जंगली बिल्ली) जब काफ़ी के गूदेदार फ़ल खाकर उसके बीज अपने गू (मल) में त्याग देता या देती है, तब जो उस बीज की काफ़ी बनती है, उसकी महिमा अपरम्पार है। यह माना जाता (प्रचारित किया जाता है) है कि एशियाई ताड़ -मार्जार की अँतड़ियों के आवास में से होकर जब वह बीज निकलता है तब उसमें दिव्य गंध का वास हो जाता है, यद्यपि इस प्रक्रिया का कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। ऐसा माना जाता है कि मार्जार की अँतड़ियों में आवासीय एन्ज़ाइम इसके कड़ुएपन को कम करते हैं और सुगंध को बढ़ाते हैं।
भारत में इस तरह की काफ़ी के अकेले उत्पादक (?) सत्तर वर्षीय टी एस गणेश कहते हैं कि उऩ्हें इस काफ़ी और सामान्य दक्षिण भारतीय काफ़ी के स्वाद या सुगंध में कोई अंतर नहीं मालूम होता।
यह काफ़ी तथा कथित 'वैश्विक ग्राम' के खुले बाजार में ३०, ००० रुपए प्रति किग्रा. बिकतीहै !! विश्व् मे ( दक्षिण एशिया में) इसका कुल उत्पादन मात्र २०० किग्रा. प्रतिवर्ष है। और मजे की बात यह है कि यद्यपि विश्व में इसके बीज का उत्पादन ( जंगल में खोजकर बटोरना) बहुत कम होता है, विदेशी कम्पनियां टी एस गणेश के 'मार्जार काफ़ी' बीजों को खरीदने के लिये तैयार नहीं हैं, यद्यपि उऩ्होंने उन बीजों की प्रशंसा ही की है - यह हमारे विदेशी भक्ति का प्रतिदान है। यदि उऩ्हें यहां के बीजों की गुणवत्ता पर संदेह है तब क्या उनके सुगंध विशेषज्ञ इसे परख नहीं सकते !
टी एस गणेश तो उस दिव्य काफ़ी के बीज लगभग सामान्य काफ़ी बीजों की तरह ही मात्र २५० रु. किलो ही बेचते हैं, क्योंकि भारत में इसकी माँग नहीं है। किन्तु हमारी विदेश भक्ति देखिये कि यद्यपि विदेशी कम्पनी हम से खरीदने को तैयार नहीं हैं, हम दो या ढाई सौ रु. में इस विदेशी काफ़ी का एक प्याला पीने को तैयार हैं, हमारा आखिर 'काफ़ी कैट' (कापी कैट) होना तो एक महान गुण है ही।
Saturday, 1 January 2011
युगदर्पण मित्र मंडल Yug Darpan सभी भाषाओँ में
युगदर्पण की योजना, हिंदी ही नहीं सभी भाषाओँ में
समर्थ सशक्त व समृद्ध भारत हेतु ..राष्ट्र हित सर्वोपरि -
यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहाँ से
कुछ बात है कि अब तक बाकि निशान हमारा !
यह राष्ट्र हमारी पहचान है, इसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं !
पतंग आकाश में जो तन के उड़ा करती है,
जड़ों से कट के वो पैरों में गिरा करती है
..वर्तमान भ्रष्ट, विकृत पत्रकारिता का ही सार्थक विकल्प देने का प्रयास विगत 10 वर्ष से चल रहा है!
चैत्र नव रात्र (4 अप्रेल) युग दर्पण का स्थापना दिवस है! देश के सभी राज्यों में शाखा विस्तार करना है !
-अभी युगदर्पण को शीघ्र ही सभी भाषाओँ में करना है, क्या आप इससे जुड़ना चाहते हैं?
एक सार्थक पहल मीडिया के क्षेत्र में राष्ट्रीय साप्ताहिक युग दर्पण (भारत सरकार के सूचना प्रसारण के समाचार पत्र पंजीयक द्वारा पंजी RNI DelHin 11786/2001) 10 वर्ष पूर्व स्वस्थ समाचारों के प्रतिनिधि बना युगदर्पण अब उनके प्रतीक के रूपमें पहचाना जाता है. विविधतापूर्ण किन्तु सप्तगुणयुक्त- सार्थक,सटीक, स्वस्थ,सोम्य, सुघड़,सुस्पष्ट, व सुरुचिपूर्ण पत्रकारिता का एक ही नाम युगदर्पण. पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है (हरयाणा/पंजाब में सूचीबद्ध)- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, comm on orkut / grp on face book ... युगदर्पण मित्र मंडल Yug Darpan
panjabi...ਯੁਗਦਰ੍ਪਣ ਮਿਤ੍ਰ ਮਂਡਲ Yug Darpan ਸਭੀ ਭਾਸ਼ਾਓਂ ਮੇਂ
ਯੁਗਦਰ੍ਪਣ ਕੀ ਯੋਜਨਾ, ਹਿਂਦੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਭੀ ਭਾਸ਼ਾਓਂ ਮੇਂ
ਸਮਰ੍ਥ ਸਸ਼ਕ੍ਤ ਵ ਸਮਰਦ੍ਧ ਭਾਰਤ ਹੇਤੁ ..ਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰ ਹਿਤ ਸਰ੍ਵੋਪਰਿ -
ਯੂਨਾਨ ਮਿਸ੍ਰ ਰੋਮਾ ਸਬ ਮਿਟ ਗਏ ਜਹਾਂ ਸੇ
ਕੁਛ ਬਾਤ ਹੈ ਕਿ ਅਬ ਤਕ ਬਾਕਿ ਨਿਸ਼ਾਨ ਹਮਾਰਾ !
ਯਹ ਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰ ਹਮਾਰੀ ਪਹਚਾਨ ਹੈ, ਇਸਕੇ ਬਿਨਾ ਹਮਾਰਾ ਕੋਈ ਅਸ੍ਤਿਤ੍ਵ ਨਹੀਂ !
ਪਤਂਗ ਆਕਾਸ਼ ਮੇਂ ਜੋ ਤਨ ਕੇ ਉਡ਼ਾ ਕਰਤੀ ਹੈ,
ਜਡ਼ੋਂ ਸੇ ਕਟ ਕੇ ਵੋ ਪੈਰੋਂ ਮੇਂ ਗਿਰਾ ਕਰਤੀ ਹੈ
..ਵਰ੍ਤਮਾਨ ਭ੍ਰਸ਼੍ਟ, ਵਿਕਰਤ ਪਤ੍ਰਕਾਰਿਤਾ ਕਾ ਹੀ ਸਾਰ੍ਥਕ ਵਿਕਲ੍ਪ ਦੇਨੇ ਕਾ ਪ੍ਰਯਾਸ ਵਿਗਤ 10 ਵਰ੍ਸ਼ ਸੇ ਚਲ ਰਹਾ ਹੈ!
ਚੈਤ੍ਰ ਨਵ ਰਾਤ੍ਰ (4 ਅਪ੍ਰੇਲ) ਯੁਗ ਦਰ੍ਪਣ ਕਾ ਸ੍ਥਾਪਨਾ ਦਿਵਸ ਹੈ! ਦੇਸ਼ ਕੇ ਸਭੀ ਰਾਜ੍ਯੋਂ ਮੇਂ ਸ਼ਾਖਾ ਵਿਸ੍ਤਾਰ ਕਰਨਾ ਹੈ !
-ਅਭੀ ਯੁਗਦਰ੍ਪਣ ਕੋ ਸ਼ੀਘ੍ਰ ਹੀ ਸਭੀ ਭਾਸ਼ਾਓਂ ਮੇਂ ਕਰਨਾ ਹੈ, ਕ੍ਯਾ ਆਪ ਇਸਸੇ ਜੁਡ਼ਨਾ ਚਾਹਤੇ ਹੈਂ?
Guj...યુગદર્પણ મિત્ર મંડલ Yug Darpan સભી ભાષાઓઁ મેં
યુગદર્પણ કી યોજના, હિંદી હી નહીં સભી ભાષાઓઁ મેં
સમર્થ સશક્ત વ સમૃદ્ધ ભારત હેતુ ..રાષ્ટ્ર હિત સર્વોપરિ -
યૂનાન મિસ્ર રોમા સબ મિટ ગએ જહાઁ સે
કુછ બાત હૈ કિ અબ તક બાકિ નિશાન હમારા !
યહ રાષ્ટ્ર હમારી પહચાન હૈ, ઇસકે બિના હમારા કોઈ અસ્તિત્વ નહીં !
પતંગ આકાશ મેં જો તન કે ઉડ઼ા કરતી હૈ,
જડ઼ોં સે કટ કે વો પૈરોં મેં ગિરા કરતી હૈ
..વર્તમાન ભ્રષ્ટ, વિકૃત પત્રકારિતા કા હી સાર્થક વિકલ્પ દેને કા પ્રયાસ વિગત 10 વર્ષ સે ચલ રહા હૈ!
ચૈત્ર નવ રાત્ર (4 અપ્રેલ) યુગ દર્પણ કા સ્થાપના દિવસ હૈ! દેશ કે સભી રાજ્યોં મેં શાખા વિસ્તાર કરના હૈ !
-અભી યુગદર્પણ કો શીઘ્ર હી સભી ભાષાઓઁ મેં કરના હૈ, ક્યા આપ ઇસસે જુડ઼ના ચાહતે હૈં?
Bangla...আ.সূচনা,...যুগদর্পণ মিত্র মংডল Yug Darpan সভী ভাষাওঁ মেং
comm on orkut / grp on face book ... యుగదర్పణ మిత్ర మండల Yug Darpan
Malm...യുഗദര്പണ മിത്ര മംഡല Yug Darpan സഭീ ഭാഷാഓം മേം
യുഗദര്പണ കീ യോജനാ, ഹിംദീ ഹീ നഹീം സഭീ ഭാഷാഓം മേം
സമര്ഥ സശക്ത വ സമൃദ്ധ ഭാരത ഹേതു ..രാഷ്ട്ര ഹിത സര്വോപരി -
യൂനാന മിസ്ര രോമാ സബ മിട ഗഏ ജഹാം സേ
കുഛ ബാത ഹൈ കി അബ തക ബാകി നിശാന ഹമാരാ !
യഹ രാഷ്ട്ര ഹമാരീ പഹചാന ഹൈ, ഇസകേ ബിനാ ഹമാരാ കോഈ അസ്തിത്വ നഹീം !
പതംഗ ആകാശ മേം ജോ തന കേ ഉഡാ കരതീ ഹൈ,
ജഡോം സേ കട കേ വോ പൈരോം മേം ഗിരാ കരതീ ഹൈ
..വര്തമാന ഭ്രഷ്ട, വികൃത പത്രകാരിതാ കാ ഹീ സാര്ഥക വികല്പ ദേനേ കാ പ്രയാസ വിഗത 10 വര്ഷ സേ ചല രഹാ ഹൈ!
ചൈത്ര നവ രാത്ര (4 അപ്രേല) യുഗ ദര്പണ കാ സ്ഥാപനാ ദിവസ ഹൈ! ദേശ കേ സഭീ രാജ്യോം മേം ശാഖാ വിസ്താര കരനാ ഹൈ !
-അഭീ യുഗദര്പണ കോ ശീഘ്ര ഹീ സഭീ ഭാഷാഓം മേം കരനാ ഹൈ, ക്യാ ആപ ഇസസേ ജുഡനാ ചാഹതേ ഹൈം?
Kann....ಯುಗದರ್ಪಣ ಮಿತ್ರ ಮಂಡಲ Yug Darpan ಸಭೀ ಭಾಷಾಓಂ ಮೇಂ
ಯುಗದರ್ಪಣ ಕೀ ಯೋಜನಾ, ಹಿಂದೀ ಹೀ ನಹೀಂ ಸಭೀ ಭಾಷಾಓಂ ಮೇಂ
ಸಮರ್ಥ ಸಶಕ್ತ ವ ಸಮೃದ್ಧ ಭಾರತ ಹೇತು ..ರಾಷ್ಟ್ರ ಹಿತ ಸರ್ವೋಪರಿ -
ಯೂನಾನ ಮಿಸ್ರ ರೋಮಾ ಸಬ ಮಿಟ ಗಏ ಜಹಾಂ ಸೇ
ಕುಛ ಬಾತ ಹೈ ಕಿ ಅಬ ತಕ ಬಾಕಿ ನಿಶಾನ ಹಮಾರಾ !
ಯಹ ರಾಷ್ಟ್ರ ಹಮಾರೀ ಪಹಚಾನ ಹೈ, ಇಸಕೇ ಬಿನಾ ಹಮಾರಾ ಕೋಈ ಅಸ್ತಿತ್ವ ನಹೀಂ !
ಪತಂಗ ಆಕಾಶ ಮೇಂ ಜೋ ತನ ಕೇ ಉಡಾ ಕರತೀ ಹೈ,
ಜಡೋಂ ಸೇ ಕಟ ಕೇ ವೋ ಪೈರೋಂ ಮೇಂ ಗಿರಾ ಕರತೀ ಹೈ
..ವರ್ತಮಾನ ಭ್ರಷ್ಟ, ವಿಕೃತ ಪತ್ರಕಾರಿತಾ ಕಾ ಹೀ ಸಾರ್ಥಕ ವಿಕಲ್ಪ ದೇನೇ ಕಾ ಪ್ರಯಾಸ ವಿಗತ 10 ವರ್ಷ ಸೇ ಚಲ ರಹಾ ಹೈ!
ಚೈತ್ರ ನವ ರಾತ್ರ (4 ಅಪ್ರೇಲ) ಯುಗ ದರ್ಪಣ ಕಾ ಸ್ಥಾಪನಾ ದಿವಸ ಹೈ! ದೇಶ ಕೇ ಸಭೀ ರಾಜ್ಯೋಂ ಮೇಂ ಶಾಖಾ ವಿಸ್ತಾರ ಕರನಾ ಹೈ !
-ಅಭೀ ಯುಗದರ್ಪಣ ಕೋ ಶೀಘ್ರ ಹೀ ಸಭೀ ಭಾಷಾಓಂ ಮೇಂ ಕರನಾ ಹೈ, ಕ್ಯಾ ಆಪ ಇಸಸೇ ಜುಡನಾ ಚಾಹತೇ ಹೈಂ?
A +ve substitute to present -ve media emerged as a mission for last 10 yrs. all subjects in refined, compact form- Yug Darpan National Hindi weeklyfrom Delhi. Empanelled with Haryana Govt, & Punjab Govt, Fast expanding to other states, likely to convert to a Daily, & a TV channel, with your support.