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Tuesday, 4 December 2012

भाजपा नेतृत्व दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ।


भाजपा नेतृत्व दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ राजनैतिक विचार मंथन  Like, comment, share, tag 50 frnds


भाजपा के मुख्य मंत्री दाएं से बाएं, नरेंद्र मोदी (गुजरात), रमन सिंह (छत्तीसगढ़), पीके धूमल (हिमाचल प्रदेश), 
पू. मु. मं. अर्जुन मुंडा (झारखंड), रमेश पोखरियाल निशंक (उत्तराखंड) और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी

अंतत: सुषमा जी ने प्रधानमंत्री पद के लिए एक 'सशक्त प्रत्याशी" के रूप में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया।"  भाजपा में आडवाणी जी की संभावना को 2009 में जिस तरह से नष्ट होते देखा गया तथा सुषमा जी, सीमित सार्वजनिक आकर्षण के साथ एक अच्छी वक्ता है। इन के बाद प्रशासकीय क्षमता में गडकरी स्वयं की भूमिका वास्तव में जानता है तथा शक्ति खेल से बाहर ही रहा है। जेटली ने लोकसभा चुनाव कभी नहीं जीता है। वह और गडकरी संभवत: इस पद के लिए सभी से कम योग्य हैं। तब नेतृत्व का सारा  दायित्व दूसरी पीढ़ी पर ही आता है।
सब से पहले, शर्मनिरपेक्ष मीडिया द्वारा शीर्ष भाजपा नेतृत्व की वर्तमान पीढ़ी के नेताओं के बारे में सदा अप्रचार चलता रहा तथा अब तक जारी है किन्तु एक नए रूप में, जैसे कि इनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है। ये लोग क्षुद्र प्रतिद्वंद्विता में फंस गए हैं। और औसत दर्जे का एक पठार तक पहुँच चुके हैं।... तथा इस अगली पीढ़ी के भाजपा मुख्यमंत्रियों पर कलंक लगाने के सफल असफल प्रयास भी चलते रहे हैं।              वास्तव में केंद्र का पूरा तंत्र, मीडिया की पूरी टीम समेत, सभी शर्मनिरपेक्ष  सदा भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों की तरह व्यवहार करते रहे हैं। दूसरी ओर, जहाँ मीडिया के बल पर 65 वर्ष कांग्रेस पार्टी के हर नेता ने सदा बयानबाजी और नारेबाजी से जनता को भरमाया है। किन्तु, वहीं शर्मनिरपेक्ष मीडिया के प्रतिद्वंद्वी बन जाने पर भी स्पष्ट है; कि भाजपा नेताओं को जनता द्वारा जब तब मुख्यमंत्री के रूप में प्रदर्शन का एक अवसर देने पर भी वह दिखा देते हैं, कि भाजपा शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्री प्रबंधन में समक्ष हैं। 
चाहे वे भाजपा के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (गुजरात), रमन सिंह (छत्तीसगढ़), पीके धूमल (हिमाचल प्रदेश) हो अथवा पू.मु.मं. अर्जुन मुंडा (झारखंड), रमेश पोखरियाल निशंक (उत्तराखंड) यदूरपा (कर्नाटक) और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी हो।  इन सब के बीच कुछ नेताओं ने जनता का विश्वास जीत लिया और बने रहे, तथा अन्य कुछ नेता सच्चे होकर भी असफल रहे। तब विफल रहे नेता को अयोग्य प्रबंधक कहलाने का दंश भी झेलना पड़ गया। जबकि विशाल दक्षिण भारतीय क्षेत्र में भाजपा के पैर जमाने में, विशेषकर कर्नाटक एक काफी महत्वपूर्ण राज्य था।
गुजरात चुनाव में कांग्रेस को एक राजनीतिक झटका देने की क्षमता भाजपा में है। अत: भाजपा शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्रियों ने, न केवल किसी भी दुराव छिपाव के बिना मोदी का समर्थन किया है, किन्तु उसके लिए चुनाव प्रचार भी किया गया है। यह भीड़ को उत्साहित करने में ही नहीं चाहिए, किन्तु इसका दीर्घकालिक व दूरगमी प्रभाव भाजपा के भविष्य (चुनाव 2014) पर भी रहना है। 
शर्मनिरपेक्ष कांग्रेस के लिए संभवत: अयोग्य प्रबंधन यह सामान्य बात है, ऐसा करने तथा भ्रष्टाचार के कारण उसने जनता का यह विश्वास खो दिया है, वह वापस नहीं हो सकता। किन्तु भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों ने दिखाया है कि वे कैसे दक्षता के साथ शासन करने के लिए योग्य हैं। तो हम जानते हैं कि वे सभी सक्षम पुरुष हैं।  पूरे कांग्रेस मशीनरी के उनके खिलाफ रहने के बाद भी, उनमें से BSY के अलावा अन्य कोई भी, किसी भी मामले में नहीं फंसा है। हम जानते हैं कि वे सब बहुत ईमानदार है। वे हर बार चुनाव सरलता से जीत लेते है। 
तो हम जानते हैं कि इन लोगों में वह जनाकर्षण है और ये राष्ट्रीय स्तर पर इसका उपयोग कर सकते हैं। उनका उत्साह साफ नजर आता  है किन्तु स्पष्ट है कि अहं किसी में हीं नहीं दिख रहा है। स्पष्ट रूप से वे, राष्ट्रीय परिदृश्य में मोदी के बड़ते कदम के आसपास भी न रहने से परेशान नहीं हैं। इन लोगों से मुझे आशा जागी है कि भाजपा नेताओं में, हमें अगले दशक में और उसके बाद भी नेतृत्व करने के लिए एक दूसरी पीढ़ी उपलब्ध है।
 ऐसे सक्षम नेतृत्व की एक दूसरी पीढ़ी भविष्य में भाजपा को एक बहुत ही महत्वपूर्ण खिलाड़ी बना देगी। जबकि राहुल और प्रियंका के रहते कांग्रेस आलाकमान की किसी को इनके आसपास भी लाने की कोई इच्छा नहीं है। तृणमूल कांग्रेस सहित क्षेत्रीय पार्टियाँ या तो सभी परिवार चलाने के लिए या एक व्यक्तित्व पंथ पर आधारित हैं। वहां दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व की कोई सम्भावना नहीं है। वाम पंथ का रूस -चीन मोह स्पष्ट रूप से देख जान कर एक राष्ट्रीय बन सकना असंभव है।
यही कारण है कि हमें भाजपा के भविष्य के बारे में जानकर अच्छा लगता हैं। यदि हम केवल वर्तमान गंदगी से उठ कर चल सकते हैं और 2014 जीतने के लिए एक मार्ग मिल सकता हैं।आइयें, इस के लिये संकल्प लें: भ्रम के जाल को तोड़, अज्ञान के अंधकार को मिटा कर, ज्ञान का प्रकाश फेलाएं। आइये, शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।
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पूज्य रामसेवको को ससम्मान श्रद्धांजलि ।


राम जन्म स्थल पर, पूज्य रामसेवको के देवलोक गमन पर,  ससम्मान श्रद्धांजलि ।

हंसी भी आती है 
होती है वेदना भी। 
वो संविधान, 
जिस पर 
मेरे जैसे 
राम वाले ने 
ना कभी अंगूठा लगाया 
ना हस्ताक्षर किये, 
महाजन की हुंडी सा 
हर सांस पर लगान वसूलता ;
धर्म-निरपेक्षता के (शर्म-निरपेक्षता)
अर्थ, तक नहीं जानता जो 
बिठाता है (?)
न्याय की कुर्सियों पर 
भिश्तियों और गुलामों को !!
वहाँ 
मेरे राम का न्याय होगा। 
एक वीभत्स प्रहसन है।। 
स्वाहा हो चुके 
राम सेवको की लाशो पर 
रोटिया सकते दल 
राम और रामायण की 
प्रासंगिकता को नकारते 
वोटो की खातिर (दलाल)
आत्मा तक बेच चुके जो, 
वो (?)
पहरे लगाते है।। 
जानते नहीं 
कितने राम 
बसते है 
हर हिन्दू ह्रदय में ??
जो जानता है 
वो हसता है
अधम वर्णसंकर जमात पर; 
जो काबिज है 
पदों पर 
मीडिया पर 
न्यायालयों में।। 
चौखट चूमती 
अपराधियों 
और 
बलात्कारियों की 
जूठन खाती 
लिजलिजी व्यवस्था ;
एक कोढ़ है 
मेरे भारत पर।। 
और 
ये सब 
देखते मेरे राम 
मौन बैठे है 
समुद्र तट पर, 
राह माँगते। 
और दुष्ट रावण 
अट्टहास करता 
इसे समझ बैठा है 
पराजय।।
अब विभीषण जागे है 
अब राम को 
क्रोध भी आया है ,
बाण तुणीर से धनुष तक 
आते ही ,
सागर देगा 
स्वयं राह 
ये तय है। 
बाकी सब लीला है 
और  
आज राक्षस 
अट्टहास करते है, 
क्योंकि 
थोड़े ही प्राण बाकी है।। 
- जय श्री राम !
source: Tarun's Diary
हिन्दू धर्म की निशानियों के लिए, लड़कपन में ही जान लुटा चुके वानर वीरो तुल्य पूज्य रामसेवको के देवलोक गमन पर,  ससम्मान श्रद्धांजलि ।
"मुझे गर्व है कि मैं राम को मानता हूँ , मुझे संतोष है कि मैं धर्म को जानता हूँ " 
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Thursday, 29 November 2012

ज्ञान विज्ञान की जन्मभूमि व तेज भारत में था

ज्ञान विज्ञान की जन्मभूमि व तेज भारत में था

 भा रत और भारत के लोगों के बारे में एक धारणा विश्व में बनाई गई कि भारत जादू-टोना और अंधविश्वासों का देश है। अज्ञानियों का राष्ट्र है। भारत के निवासियों की कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रही, न ही विज्ञान के क्षेत्र में कोई योगदान है। 
भारत के संदर्भ में यह प्रचार (BrainWash) विचार रिवर्तन लंबे समय से आज तक चला आ रहा है। रिणाम यह हुआ कि अधिकतर भारतवासियों के अंतर्मन में यह बात अच्छे से बैठ गई कि विज्ञान यूरोप की देन है। विज्ञान का सूर्य पश्चिम में ही उगा था, उसी के प्रकाश से संपूर्ण विश्व प्रकाशमान है। 
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हम हर बात में पश्चिम के पिछलग्गू हो गए हैं क्योंकि हम पश्चिम की सोच को वैज्ञानिक सम्मत मानते हैं, भारत की नहीं। पश्चिम ने जो सोचा है, अपनाया है वह मानव जाति के लिए उचित ही होगा। इसलिए हमें भी उसका अनुकरण करना चाहिए। 
भारत में योग पश्चिम से योगा होकर आया, तो जमकर अपनाया गया। आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति को हटाकर एलोपैथी के व्यवसाय को अपनाया लोगों की आंखें तब खुली, जब आयुर्वेद पश्चिम से हर्बल का लेवल लगाकर आया। भारत में विज्ञान को लेकर जो वातावरण निर्मित हुआ उसके लिए हमारे देश के कर्णधार व नकी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं। जिन्होंने भी शोध और विमर्श के बाद भी, भारतीय शिक्षा व्यवस्था में, भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा को शामिल नहीं किया। भारत के छात्रों का क्या दोष, जब उन्हें पढ़ाया ही नहीं जाएगा; तो उन्हें कहां से मालूम चलेगा कि भारत में विज्ञान का स्तर कितना उन्नत था। 
    विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी? भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था? विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञानदृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञानदृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी? आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं; उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है? ऊपर के पैरे को पढ़कर निश्चित तौर पर हर किसी के मन में यही प्रश्न हिलोरे मारेंगे तो इनके उत्तर के लिए 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' पुस्तक पढऩी चाहिए। 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुरेश सोनी की इस पुस्तक में भी प्रश्न के उत्तर   निहित हैं। पुस्तक में कुल इक्कीस अध्याय हैं। धातु विज्ञान, विमान विद्या, गणित, काल गणना, खगोल विज्ञान, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणि शास्त्र, कृषि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ध्वनि और वाणी विज्ञान, लिपि विज्ञान सहित विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भारत का क्या योगदान रहा; इसकी विस्तृत चर्चा, प्रमाण सहित पुस्तक में की गई है। यही नहीं, यह भी स्पष्ट किया गया है कि विज्ञान को लेकर पश्चिम और भारतीय धारणा में कितना अंतर है। जहां पश्चिम की धारणा उपभोग की है, जिसके नतीजे आगे चलकर विध्वंसक के रूप में सामने आते हैं। वहीं भारतीय धारणा लोक कल्याण की है। 
सुरेश सोनी मनोगत में लिखते हैं कि आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय की 'हिन्दू केमेस्ट्री', ब्रजेन्द्रनाथ सील की 'दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ एन्शीयन्ट हिन्दूज', राव साहब वझे की 'हिन्दी शिल्प मात्र' और धर्मपालजी की 'इण्डियन सायन्स एण्ड टेकनोलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी' में भारत में विज्ञान व तकनीकी परंपराओं को प्रमाणों के साथ उद्घाटित किया गया है। वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान और वनस्पति विज्ञान, भौतिकी, धातुकर्म, मशीनों, रसायन शास्त्र आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया। बेंगलूरु के एमपी राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पीजी डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के लेखों, व्याख्यानों में प्राचीन भारतीय विज्ञान परंपरा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है।
    भारत में विज्ञान की क्या दशा और दिशा थी, उसको समझने के लिए आज भी वे ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनकी रचना के लिए वैज्ञानिक ऋषियों ने अपना जीवन खपया। वर्तमान में आवश्यकता है कि उनका अध्ययन हो, विश्लेषण हो और प्रयोग किए जाएं। जबकि कई विद्याएं जानने वालों के साथ ही लुप्त हो गईं, क्योंकि हमारे यहां मान्यता रही कि अनधिकारी के हाथ में विद्या नहीं जानी चाहिए। विज्ञान के संबंध में अनेक ग्रंथ थे, जिनमें से कई आज लुप्त हो गए हैं। जबकि आज भी लाखों पांडुलिपियां बिखरी पड़ी हैं। भृगु, वशिष्ठ, भारद्वाज, आत्रि, गर्ग, शौनक, शुक्र, नारद, चाक्रायण, धुंडीनाथ, नंदीश, काश्यप, अगस्त्य, परशुराम, द्रोण, दीर्घतमस, कणाद, चरक, धनंवतरी, सुश्रुत पाणिनि और पतंजलि आदि ऐसे नाम हैं; जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र रचना, जहाज निर्माण और जीवन के सभी क्षेत्रों में काम किया। अगस्त्य ऋषि की संहिता के उपलब्ध कुछ पन्नों को अध्ययन कर नागपुर के संस्कृत के विद्वान डॉ. एससी सहस्त्रबुद्धे को मालूम हुआ कि उन पन्नों पर इलेक्ट्रिक सेल बनाने की विधि थी। महर्षि भरद्वाज रचित विमान शास्त्र में अनेक यंत्रों का वर्णन है। नासा में काम कर रहे वैज्ञानिक ने सन् १९७३ में इस शास्त्र को भारत से मंगाया था। इतना ही नहीं, राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का 31वें अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान, यांत्रिक दरबान और सिपाही (रोबोट की तरह)। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता में चिकित्सा की उन्नत पद्धितियों का विस्तार से वर्णन है। यहां तक कि सुश्रुत ने तो आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन किया है। सृष्टि का रहस्य जानने के लिए आज जो महाप्रयोग चल रहा है, उसकी नींव भी भारतीय वैज्ञानिक ने रखी थी। सत्येन्द्रनाथ बोस के फोटोन कणों के व्यवहार पर गणितीय व्याख्या के आधार पर, ऐसे कणों को बोसोन नाम दिया गया है। 
    भारत में सदैव से विज्ञान की धारा बहती रही है। बीच में कुछ बाह्य आक्रमणों के कारण कुछ गड़बड़ अवश्य हुई लेकिन यह धारा अवरुद्ध नहीं हुई। 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' एक ऐसी पुस्तक है, जो भारत के युवाओं को अवश्य पढऩी चाहिए।

पुस्तक : भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा
मूल्य : ६० रुपए
लेखक : सुरेश सोनी
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन
१७, दीनदयाल परिसर, ई/२ महावीर नगर,
भोपाल-४६२०१६, दूरभाष - (०७५५) २४६६८६५
कभी ज्ञान विज्ञान से विश्वगुरु भारत की, स्वर्ण युग की उस शक्ति को
पहचान देगा; ज्ञान -विज्ञान दर्पण | आओ, मिलकर इसे बनायें; - तिलक
हमें, यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए | आओ, मिलकर इसे बनायें; - तिलक
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण

Monday, 19 November 2012

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई:

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 

मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अप
ने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।
शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।
विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।
विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।
दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।
झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

Photo: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 
मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।

जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।

विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।

दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।

झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान


रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण, योग्यता व क्षमता विद्यमान है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण

Saturday, 17 November 2012

बाला साहब ठाकरे राष्ट्रप्रहरी थे।

राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे अनन्त में विलीन:
निर्मल ह्रदय, स्पष्टवक्ता, प्रखर हिन्दूत्ववादी राष्ट्रप्रहरी, बाला साहब ठाकरे का अनन्त में समा जाना, परिवार, देश व हिन्दूत्व के लिए असहनीय क्षति है, परमात्मा उनकी आत्मा को शांति व हम ब को दुख सहने की क्षमता प्रदान करें। आप सदा हमारे ह्रदय में प्रकाश बनके समाये रहेंगे 
राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे एक निर्मल ह्रदय, स्पष्टवक्ता थे, तथा जीवन पर्यन्त देश, समाज व हिन्दूत्व के लिए निरन्तर संघर्षरत रहे। आज हम विचार व सिद्धांत के महत्त्व को नहीं समझते, किन्तु वे निर्विवाद रूप से मानते थे। तथा इस पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। हमने देखा यदि सत्य में निष्ठा है, तब विचार मेल न खाते होने पर भी समस्या नहीं, सम्मान मिलता है। हम सत्यनिष्ठा का पालन करें। वन्देमातरम, 
राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे अनन्त में विलीन: निर्मल ह्रदय, स्पष्ट..... -तिलक, युगदर्पण मीडिया समूह YDMS, 9911111611. http://jeevanmelaadarpan.blogspot.in/2012/11/blog-post_17.html
कभी विश्व गुरु रहे भारत की, धर्म संस्कृति की पताका; विश्व के कल्याण हेतू पुनः नभ में फहराये | - तिलक संपादक,   पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण