रोक न पाए, जिसको ये विश्व सारा,
वो एक बूँद, आँख का पानी हूँ मैं,
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
उन शर्मनिर्पेक्षों से पूछो, क्या हमको सिखाते?
तुम्हें छोड़ सब जानते, क्या है संस्कृति हमारी;
वसुधैव कुटुम्बकम की प्रकृति है हमारी,
विश्वगुरु फिर कहाने की नियति है हमारी,
समझो खुली किताब के जैसी कहानी हूँ मैं,
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
कितना भी गहरा घाव दे कोई हमको,
उतना ही मुस्करान भी आता है हमको,
अतिथियों का स्वागत किया है सदा ही,
शत्रुओं को मिटाना भी आता है हमको;
ये शब्द नहीं इतिहास की जुबानी हूँ मैं;
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
खोलना चाहते हो क्यों, बंद उस द्वार को?
द्वार मस्तिष्क खोलो, न रहो आंख मीचे,
वरना रह जायेगा, केवल पछताना पीछे,
धधकता है ज्वालामुखी, बड़ा जिसके पीछे,
राम का भक्त हनुमान जैसी रवानी हूँ मैं;
"यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं".
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण
No comments:
Post a Comment
कृप्या प्रतिक्रिया दें, आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए महत्व पूर्ण है | इस से संशोधन और उत्साह पाकर हम आपको श्रेष्ठतम सामग्री दे सकेंगे | धन्यवाद -तिलक संपादक