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Monday, 19 November 2012

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई:

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 

मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अप
ने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।
शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।
विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।
विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।
दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।
झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

Photo: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 
मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।

जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।

विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।

दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।

झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान


रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण, योग्यता व क्षमता विद्यमान है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण

Saturday, 17 November 2012

बाला साहब ठाकरे राष्ट्रप्रहरी थे।

राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे अनन्त में विलीन:
निर्मल ह्रदय, स्पष्टवक्ता, प्रखर हिन्दूत्ववादी राष्ट्रप्रहरी, बाला साहब ठाकरे का अनन्त में समा जाना, परिवार, देश व हिन्दूत्व के लिए असहनीय क्षति है, परमात्मा उनकी आत्मा को शांति व हम ब को दुख सहने की क्षमता प्रदान करें। आप सदा हमारे ह्रदय में प्रकाश बनके समाये रहेंगे 
राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे एक निर्मल ह्रदय, स्पष्टवक्ता थे, तथा जीवन पर्यन्त देश, समाज व हिन्दूत्व के लिए निरन्तर संघर्षरत रहे। आज हम विचार व सिद्धांत के महत्त्व को नहीं समझते, किन्तु वे निर्विवाद रूप से मानते थे। तथा इस पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। हमने देखा यदि सत्य में निष्ठा है, तब विचार मेल न खाते होने पर भी समस्या नहीं, सम्मान मिलता है। हम सत्यनिष्ठा का पालन करें। वन्देमातरम, 
राष्ट्रप्रहरी बाला साहब ठाकरे अनन्त में विलीन: निर्मल ह्रदय, स्पष्ट..... -तिलक, युगदर्पण मीडिया समूह YDMS, 9911111611. http://jeevanmelaadarpan.blogspot.in/2012/11/blog-post_17.html
कभी विश्व गुरु रहे भारत की, धर्म संस्कृति की पताका; विश्व के कल्याण हेतू पुनः नभ में फहराये | - तिलक संपादक,   पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण

Saturday, 10 November 2012

सार्थक दीपावली सन्देश

सार्थक दीपावली सन्देश: సార్థక దీపావలీ సన్దేశ , ஸார்தக தீபாவலீ ஸந்தேஸ , ಸಾರ್ಥಕ ದೀಪಾವಲೀ ಸನ್ದೇಶ , സാര്ഥക ദീപാവലീ സന്ദേശ ,সার্থক দীপাবলী সন্দেশ, 
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युगदर्पण का सार्थक दीपावली सन्देश: सार्थक दिपावली का अर्थ ? 
सार्थक दीपावली सन्देश...Pl. Like it, join it, share it. Tag 50 
युगदर्पण का सार्थक दीपावली सन्देश: सार्थक दिपावली का अर्थ ? 
दशहरा यदि सत्य का असत्य पर विजय का प्रतीक है, तो दीपावली प्रकाश का अन्धकार पर। आइयें, इस के लिये संकल्प लें: भ्रम के जाल को तोड़, अज्ञान के अंधकार को मिटा कर, ज्ञान का प्रकाश फेलाएं। आइये, शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।। 
यह दीपावली भारतीय जीवन से आतंकवाद, अवसरवाद, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि की अमावस में, सत्य का दीपक जला कर धर्म व सत्य का प्रकाश फैलाये तथा भारत को सोने की चिड़िया का खोया वैभव, पुन:प्राप्त हो! अखिल विश्व में फैले सम्पूर्ण हिन्दू समाज के आप सभी को सपरिवार, युगदर्पण परिवार की ओर से दीपावली की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं। 
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है -इस देश को लुटने से बचाने तथा बिकाऊ मेकालेवादी, मीडिया का एक मात्र सार्थक, व्यापक, विकल्प -राष्ट्र वादी मीडिया |अँधेरे के साम्राज्य से बाहर का एक मार्ग...remain connected to -युगदर्पण मीडिया समूह YDMS. तिलक रेलन 9911111611 ... yugdarpan.com

दशहरा यदि सत्य का असत्य पर विजय का प्रतीक है, तो दीपावली प्रकाश का अन्धकार पर। आइयें, इस के लिये संकल्प लें: भ्रम के जाल को तोड़, अज्ञान के अंधकार को मिटा कर, ज्ञान का प्रकाश फेलाएं। आइये, शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।
यह दीपावली भारतीय जीवन से आतंकवाद, अवसरवाद, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि की अमावस में, सत्य का दीपक जला कर धर्म व सत्य का प्रकाश फैलाये तथा भारत को सोने की चिड़िया का खोया वैभव, पुन:प्राप्त हो! अखिल विश्व में फैले सम्पूर्ण हिन्दू समाज के आप सभी को सपरिवार, युगदर्पण परिवार की ओर से दीपावली की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं।
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पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है| -युगदर्पण

Tuesday, 6 November 2012

युगदर्पण के 50 हजारी होने पर

युगदर्पण के 50 हजारी होने पर आप सभी को हार्दिक बधाई व धन्यवाद। युग दर्पण ब्लाग पर बने, हमारे ब्लाग को 49 देशों के 3640, तथा राष्ट्र दर्पण पर 33 देशों के 1693, आप लोगों ने 4 नव.11 प्रथम 1 1/2 वर्षों में 10 हज़ार बार खोला व हमें 10 हजारी बनाया था। अब 4 नव.12 तक केवल एक वर्ष में, 63 देशों के 6360, तथा 51 देशों के 4100+ आप लोगों ने हमें 50 हजारी कर दिया है। आप सभी केवल हार्दिक बधाई व धन्यवाद के पात्र नहीं, हमआपका हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है -युगदर्पण मीडिया समूह YDMS. तिलक रेलन 9911111611 ... yugdarpan.com
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Tuesday, 16 October 2012

नव रात्रि /शक्ति पूजन (Devine Nights),

नव रात्रि /शक्ति पूजन (9 Devine Nights),   
व्याख्यान -तिलक राज रेलन,  वरि. पत्रकार, लेखक, चिन्तक, संपादक -युग दर्पण मीडिया समूह, 
वास्तव में "नव -रात्रि" का तात्पर्य है " शिवशक्ति की विशेष नौ रातें" जब शक्ति को सहज जागृत किया जा सकता है यह त्यौहार एक वर्ष में 2 बार मनाया जाता है | एक "चैत्र माह" गर्मियों के आरंभ में, एक बार फिर से "आश्विन माह" सर्दियों के आरंभ में | चेती नवराते को पृथ्वी के आरंभ से तथा शारदीय नवराते को भगवान राम के रावण से युद्ध पूर्व व लंका प्रस्थान हेतु समुद्र पार जाने के समय, शक्ति पूजन इस दिन किया गया मानते हैं 
मेरी व्यक्तिगत सोच है कि पृथ्वी का आरंभ में गर्म होना व प्रकारांतर में शीतल होना, सृष्टि काल के कल्प का एक चक्र है | उसी का लघु रूप ग्रीष्म और शरद है, और दिन रात है जैसे वर्तमान प्रणाली में समय का घंटे, मिनट व सेकण्ड मानते हैं | पहले भारतीय सनातन प्रणाली में घटी और पल थे | (इस लेख के इस अंश पर विशेष टिप्पणी चाहूँगा |)
नवरात्रि का महत्व क्या है?
नवरात्रि के मध्य, सार्वभौमिक माँ, सामान्यतः "दुर्गा," जिसे वास्तव में जीवन के दुखों का हरण करने वाली, दुख हरणी के रूप में जाना जाता है, का इस रूप में भगवान की दिव्य शक्ति/ऊर्जा पक्ष का आह्वान किया जाता है | जिसे "देवी" (देवी) या "शक्ति" (ऊर्जा या शक्ति) के रूप में भी जाना जाता है | यह वह ऊर्जा है, जिसका उपयोग भगवान शिव द्वारा सृजन, संरक्षण और विनाश के लिए है  दूसरे शब्दों में, आप कह सकते हैं कि भगवान स्थिर, शांत रूप नितांत परिवर्तनहीन है और देवी माँ दुर्गा, उसका सक्रिय रूप में सब कुछ करती है | अर्थात एक इसका शांत रूप है दूसरा सक्रीय | इस शांत व सक्रीय के समन्वय व्यापक तत्व को ही अर्ध नारीश्वर कहा जाता है सच कहूँ तो, हमारी शक्ति पूजा का वैज्ञानिक सिद्धांत है कि ऊर्जा अविनाशी है, की फिर से पुष्टि होती है | यह सदा सर्वत्र है, इसे न बनाया जा सकता है, न मिटाया जा सकता है |
क्यों देवी माँ को दंडवत?
हमें लगता है कि यह शक्ति उस जगत जननी देवी माँ, जो सभी की माँ है, का ही एक रूप, और हम में से सभी बच्चे उसके बच्चे है | प्रश्न उठता हैं,"माँ क्यों, क्यों नहीं पिता"  मुझे बस इतना कहना है कि हमें विश्वास है कि भगवान की महिमा, उनकी लौकिक ऊर्जा, उसकी महानता और वर्चस्व तथा सबसे ऊपर, भगवान के मातृत्व पक्ष को इस रूप में दर्शाया जा सकता है | बस एक बच्चे के लिए इस रूप में या उसकी माँ में, इन सभी गुणों को पाना है  इसी प्रकार, हम सभी की माँ के रूप में दिखने वाला भगवान, ऐसा वास्तव में, हिंदू धर्म है और विश्व में यही धर्म है | जो भगवान के मातृ पक्ष को इतना महत्व देता है, क्योंकि हम मानते हैं कि यह माँ के रचनात्मक पक्ष है, पूर्ण है |
एक वर्ष में दो बार क्यों?
हर वर्ष गर्मियों के आरंभ और सर्दियों के आरंभ के जलवायु परिवर्तन और सौर प्रभाव के दो बहुत महत्वपूर्ण संधिकाल/ पड़ाव हैं. क्योंकि इन दो संधिकालों में परमात्मा की शक्ति की पूजा के लिए पवित्र अवसर के रूप में माना गया है:
(1) हम मानते हैं कि यह वह दिव्य शक्ति है, जो पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर भ्रमण करने के लिए ऊर्जा प्रदान करती है | यही प्रकृति में बाह्य परिवर्तन तथा संतुलन का कारण है अत: इस दिव्य शक्ति को ब्रह्मांड के सही संतुलन को बनाए रखने के लिए, धन्यवाद दिया जाना चाहिए | इस अध्यात्मिक सोच के रहते हम प्रकृति का हर रूप में नमन करते रहे, पाश्चत्य अन्धानुकरण में इसका त्याग होते ही, यहाँ भी प्रकृति का शोषण होने लगा |


अखिल ब्रह्माण्ड के कल्याण व मानव मात्र के सदमार्ग हेतु,, दिव्या शक्ति के सुपुत्रों सम्पूर्ण हिन्दू समाज की सद्चेतना जागृत हो, 
इसके लिए भगवती अपने इन पुत्रों को सद्बुद्धि प्रदान करे, नव रात्र की इन शुभ कामनाओं सहित, तिलक व सम्पूर्ण युग दर्पण परिवार.

(2) प्रकृति में परिवर्तन के कारण हम लोगों के शरीर व मन में व्यापक परिवर्तन होते है, और इसलिए, हमारे शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए, हम सभी परमात्मा से पर्याप्त शक्तियां प्रदान करने के निवेदन हेतु शक्ति की पूजा करते हैं |
9 रात और दिन ही क्यों ?
नवरात्रि को यदि 3 दिन के 3 भाग में विभाजित करें, तो यह सर्वोच्च देवी के 3 विभिन्न पक्षों के प्रति समर्पित है | प्रथम 3 दिनों में, माँ के शक्तिरूप में, दुर्गा का आह्वान, क्रम में हमारे सब अशुद्धता, न्यूनता व दोषों के निवारण हेतु किया जाता है  अगले 3 दिनों, माँ के आध्यात्मिक शक्तियों की प्रदाता, धनलक्ष्मी व कन्या रूपा का आह्वान, तथा वंदन, किया जाता है जिसकी असीम अनुकम्पा से हमें सुख -शांति व अपार धन -धान्य निर्बाध प्राप्त होता रहता है  अंतिम 3 दिनों के अंतिम भाग में विवेक व ज्ञान की देवी सरस्वती के रूप में मां की पूजा की जाती है |  इस क्रम में यह जीवन में चतुर्दिक सफलता की दात्री है  हमें देवी माँ के सभी 3 पक्षों के आशीर्वाद की आवश्यकता है, इसलिए 9 रातों के लिए पूजा. का विधान है 
शक्ति की आवश्यकता क्यों है ?
इस प्रकार, मेरा सुझाव है कि आप नवरात्रि के मध्य "माँ दुर्गा की पूजा" में अपने माता पिता के साथ सहभागी हो सकते हैं  वह आप पर धन, शुभ (मंगलकारी), समृद्धि, ज्ञान, और अन्य दिव्या शक्तियों को प्रदान करेगी, जिससे आप जीवन की हर बाधा को पार कर जायेंगे  याद रखें, इस विश्व में सभी शक्ति अर्थात दुर्गा, की पूजा करते हैं, क्योंकि यहाँ ऐसा कोई नहीं है जो किसी न किसी रूप में शक्ति की कामना कभी भी नहीं करता है |  (ध्यान रहे, आपका सच्चा मित्र कभी, आपको गलत राह दिखने वाला, या अल्प ज्ञान से भटकाने वाला, नहीं, हो सकता, -तिलक, 9911111611)
कभी विश्व गुरु रहे भारत की, धर्म संस्कृति की पताका; विश्व के कल्याण हेतू पुनः नभ में फहराये | - तिलक
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया | इंडिया से भारत बनकर ही, विश्व गुरु बन सकता है; - तिलक
"अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है | इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे ||"- तिलक
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Sunday, 7 October 2012

बिकाऊ मेकालेवादी, मीडिया vs राष्ट्र वादी मीडिया |

बिकाऊ मेकालेवादी, मीडिया vs राष्ट्र वादी मीडिया |Graph of Blogger page views
आप किसके साथ हैं ?
मैकाले ने इस देश को बर्बाद करने हेतु जीवन के हर क्षेत्र को गन्दा किया | युग दर्पण हर क्षेत्र को anti virus देगा | पूरा मीडिया मेकाले के मार्ग पर, वामपंथी इशारे पर, कांग के हित में चलता है| विकल्प एक है, 'युग दर्पण मीडिया समूह'| वो संस्कृति और धर्म के शत्रु हैं, विकल्प राष्ट्रवादी है| वो बिकाऊ है,सत्य को झूट बनाते हैं, हम देश के ल
िए बिके है, सत्य सामने लायेंगे | यदि हम, देश को भ्रष्ट कांग, से मुक्ति और भाजपा को लाना चाहते है, किन्तु इनका काम हमसे उल्टा है | तो इनका हमारा क्या मेल है ? 
भाजपा की राह के, ये कांटे दूर करने हेतु, इसके विकल्प “युग दर्पण मीडिया समूह” को सफल बनायें | इनके जाते ही, भाजपा को रोकने वाला कोई नहीं | यही सारी बात, अपने मित्रों को समझाना है | मिशन युग दर्पण को जन जन तक पहुँचाना है | तो HT, TOI, NDTV, सब फेल हो सकते हैं |  
हमारे सारे सूत्र, yugdarpan.com से मिलेंगे, सब की 'theme' विषय भिन्न है | उद्देश्य व संकल्प एक है, किन्तु विवरण भिन्न है | 
-युग दर्पण मीडिया समूह, 9911111611, yugdarpan.com
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Wednesday, 5 September 2012

मैं भारत हूँ!!

मैं भारत हूँ!! (हमारी प्रकृति व नियति)
रोक न पाए, जिसको ये विश्व सारा,
वो एक बूँद, आँख का पानी हूँ मैं,
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
उन शर्मनिर्पेक्षों से पूछो, क्या हमको सिखाते?
तुम्हें छोड़ सब जानते, क्या है संस्कृति हमारी;
वसुधैव कुटुम्बकम की प्रकृति है हमारी,
विश्वगुरु फिर कहाने की नियति है हमारी,
समझो खुली किताब के जैसी कहानी हूँ मैं,
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
कितना भी गहरा घाव दे कोई हमको,
उतना ही मुस्करान भी आता है हमको,
अतिथियों का स्वागत किया है सदा ही,
शत्रुओं को मिटाना भी आता है हमको;
ये शब्द नहीं इतिहास की जुबानी हूँ मैं;
यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं,
खोलना चाहते हो क्यों, बंद उस द्वार को?
द्वार मस्तिष्क खोलो, न रहो आंख मीचे,
वरना रह जायेगा, केवल पछताना पीछे,
धधकता है ज्वालामुखी, बड़ा जिसके पीछे,
राम का भक्त हनुमान जैसी रवानी हूँ मैं;
"यदि रख सको, तो अमिट निशानी हूँ मैं,
न संभाल सको, तो बस एक कहानी हूँ मैं".
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण